मुसलमानों के शिक्षा में आरक्षण की सख्त जरूरत सर्वांगीण विकास के लिए


इसे संयोग ही कहा जाएगा कि मुसलमानों की जोरदार मुखालफत करने वाले बाल ठाकरे के ही पुत्र उद्धव ठाकरे के शासनकाल में ही मुसलमानों को शिक्षा में पांच फीसदी आरक्षण देने की व्यवस्था की जा रही है। अगर महाराष्ट्र में मुसलमानों की स्थिति पर गौर करें तो उन्हें पांच नहीं, बल्कि आबादी के आधार पर 10 फीसदी आरक्षण की जरूरत है। महाराष्ट्र में, देहात की तो बात ही छोड़ दें, मुंबई जैसे मेट्रो शहर में रहने वाले मुसलमानों की भी हालत एकदम पिछड़ी मानी जाने वाली अनुसूचित जाति और जनजाति से भी बदतर है।
 

दरअसल, जस्टिस राजिंदर सच्चर की अध्यक्षता में गठित समिति की 30 नवंबर, 2006 को रिपोर्ट लोकसभा में पेश होने के बाद महाराष्ट्र में भी मुसलमानों की स्थिति के अध्ययन की बात उठी। तत्कालीन सीएम विलासराव देशमुख ने मई 2008 में महाराष्ट्र में मुसलमानों की शैक्षिक-सामाजिक-आर्थिक स्थिति के अध्ययन के लिए रिटायर ब्यूरोक्रेट डॉ. महमूदुर रहमान की अगुवाई में सात सदस्यों वाली समिति बनाई थी। समिति में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंसेज (टिस्स) के प्रोफेसर्स और मुस्लिम मामलों के कुछ दूसरे विशेषज्ञ शामिल किए गए थे।

करीब पांच साल के गहन अध्ययन के बाद समिति ने अपनी रिपोर्ट 21 अक्टूबर 2013 को राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण को सौंप दी थी। लेकिन दुर्भाग्य से कांग्रेस-एनसीपी सरकार ने उस रिपोर्ट को सार्वजनिक ही नहीं किया। इसी बीच वह रिपोर्ट लीक हो गई। लीक्ड रिपोर्ट में मुसलमानों के बारे में कई हैरान करने वाले तथ्य सामने आए। मसलन, महाराष्ट्र में करीब 60 फीसदी मुसलमान गरीबी रेखा के नीचे हैं। राज्य में देहात की बात तो छोड़ दें, मुंबई जैसे शहर में रहने वाले मुसलमानों की भी हालत एकदम पिछड़ी मानी जाने वाली अनुसूचित जाति और जनजाति से भी बदतर है।

रिपोर्ट में यह भी बताया गया कि राज्य में निजी बैंक ही नहीं, बल्कि राष्ट्रीय बैंक भी मुसलमानों को कर्ज देने से परहेज करती हैं। बैंक मुसलमानों ही नहीं, सघन मुस्लिम बस्तियों में घर लेने वाले किसी भी समुदाय को आवासीय कर्ज देने में आनाकानी करती है। मुंबई से सटा मीरारोड का मुस्लिम बाहुल्य इलाका नयागनर जीता जागता उदाहरण है, जहां आज भी घर लेने वालों को बिना तगड़ी सिफारिश के किसी भी बैंक से होम लोन नहीं मिलता है। 

बहरहाल, महमूदुर रहमान समिति ने रिपोर्ट में टाटा इंस्टिट्यूट ऑफ सोशल साइंस, एसएनडीटी वीमेन यूनिवर्सिटी की इकोनॉमिक्स फैकेल्टी और मुंबई यूनिवर्सिटी के निर्मला निकेतन कॉलेज ऑफ़ सोशल वर्क समेत कुल सात संस्थानों के भरोसेमंद सर्वेक्षणों और अध्ययनों का हवाला दिया। तमाम सर्वेक्षण और अध्ययन कमोबेश एक जैसे हैं, और सत्यता की कसौटी पर 100 फीसदी खरे उतरते हैं।

देश में 34.4 फीसदी मुसलमान गरीब हैं।



महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट के मुताबिक महाराष्ट्र में 1.30 करोड़ मुसलमान (2001 की जनगणना में राज्य में मुसलमानों की आबादी एक करोड़ थी)हैं। इसमें 15 साल तक के लोगों की संख्या 37 फीसदी है, जो दूसरे धर्म के लोगों की तुलना में ज्यादा जन्म दर दर्शाती है। राज्य में पुरुष मुखिया वाले हर मुस्लिम परिवार में औसतन छह से ज्यादा(6.1) सदस्य होते हैं जबकि महिला मुखिया वाले परिवार में पांच(4.9) सदस्य होते हैं। रिपोर्ट में 60 साल या उससे ज़्यादा उम्र के मुसलमानों की आबादी केवल 6.6 फीसदी बताई गई है, जिसका मतलब है कि मुस्लिम समाज में लोग 60 साल के बाद जल्दी मर जाते हैं। समिति ने कहा है कि इसकी वजह अत्यंत गरीबी और उचित मेडिकेयर का गंभीर अभाव हो सकता है। यह अलग सीरियस शोध का विषय है।

महमूदुर रहमान समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में केवल 10 फीसदी मुसलमानों के पास अपना खेत है और वे उस खेत में खेती का कार्य करते हैं। 59 फीसदी मुस्लिम गरीबी रेखा के नीचे हैं, जबकि पूरे देश में 34.4 फीसदी मुसलमान गरीब हैं। इतना ही नहीं 25 मुसलमान गरीबी रेखा के कुछ ही ऊपर हैं। राज्य में 20 फीसदी मुसलमानों के पास राशन कार्ड ही नहीं है। इसी तरह 59 फीसदी मुसलमान स्लम यानी गलीच बस्तियों में रहते हैं। इनमें केवल 18 फीसदी लोगों के ही घर पक्के हैं। राज्य में बहुत बड़ी तादाद में मुस्लिम युवक बेरोजगार हैं। 32.4 फीसदी लोग छोटे-मोटे काम करते हैं।

बड़ी तादाद में बेरोजगारी की वजह से ही शायद राज्य में 45 फीसदी मुस्लिमों की परकैपिटा आमदनी महज 500 रुपए ही है। 34 फीसदी मुसलमानों (आबादी का एक तिहाई) की मासिक आमदनी 10 हजार रुपए से भी कम है। 24 फीसदी 10 से 20 हजार महीने कमाते हैं, जबकि 20 से 30 हजार कमाने वाले मुसलमानों की तादाद महज 3.8 फीसदी है। अपेक्षाकृत अच्छा यानी 30 से 40 हजार रुपए कमाने वालों की संख्या सबसे कम 1.0 फीसदी है।

हालांकि ऐसा नहीं कि मुस्लिम समाज में सभी गरीब ही हैं। महमूदुर रहमान समिति रिपोर्ट कहती है कि मुस्लिम समाज काफी संपन्न भी है, देश के बस बाकी समुदायों की तरह मुसलमानों में भी मुट्ठी भर लोग बेहतर या आराम की जिंदगी जी पाते हैं। महाराष्ट्र में केवल 6 फ़ीसदी मुसलमान हर महीने 50 हजार या उससे ज्यादा रुपये की आमदनी करते हैं। रिपोर्ट के मुताबिक बहुत शानदार जीवन जीने वाले मुसलमान उंगली पर गिनने लायक हैं।

शिक्षा के क्षेत्र में डॉ. महमूदुर रहमान की रिपोर्ट करीब-करीब जस्टिस सच्चर की रिपोर्ट जैसी ही है। मतलब, एजुकेशन में मुसलमानों की दशा बहुत ही दयनीय है। जहां देश में साक्षरता की दर 74 फीसदी है, वहीं मुस्लिम साक्षरता केवल 67.6 फीसदी है। महाराष्ट्र में यह 65.5 फीसदी से भी नीचे चली गई है। हालांकि, प्राइमरी स्तर पर मुस्लिम बच्चे हिंदुओं से बेहतर स्थिति में हैं। यानी हिंदुओं के 38 फीसदी बच्चे प्राइमरी तक पहुंचे हैं तो मुस्लिमों के 47 फीसदी बच्चे।




 


रिपोर्ट कहती है, आमतौर पर 14 साल की उम्र में मुस्लिम बच्चे पढ़ाई छोड़ देते हैं और बाल मजदूर के रूप में काम करने लगते हैं। घर की आर्थिक तंगी और जनसंख्या वृद्धि इसकी मुख्य वजह है। सेकेंडरी यानी 12वीं तक केवल 4.2 फीसदी बच्चे पहुंच पाते हैं। उच्च शिक्षा का मुस्लिमों का आंकड़ा भयावह है। महज 3.1 युवक स्नातक तक पहुंचते हैं। 2011 के आईएएस में 203 चयनित उम्मीदवारों में महाराष्ट्र का एक ही मुस्लिम युवक था, जबकि आईपीएस में चुने गए 302 लोगों में महाराष्ट्र से बस चार मुस्लिम युवक थे। राज्य की फडनवीस सरकार इसकी वजह मदरसा कल्चर मानती है।




रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में मुस्लिम लड़कियों के शिक्षा का आंकड़ा तो निराश करने वाला है। महज़ एक फीसदी लड़कियां कॉलेज तक पहुंचती हैं। उच्च शिक्षा हासिल न कर पाने से वे पुरुषों का अत्याचार सहती हैं। उनके शौहर विरोध के बावजूद एक से ज्यादा निकाह कर लेते हैं। 2006 की थर्ड नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे के मुताबिक, 2.55 फीसदी मुस्लिम महिलाओं के पतियों के पास एक से अधिक बीवियां हैं, जबकि हिंदुओं में यह आंकड़ा 1.77 फीसदी है। राज्य में मुसलमानों में दूसरे समुदायों की तुलना में अविवाहितों, तलाकशुदा और विधवाओं की संख्या बहुत ज्यादा है। वैसे राष्ट्रीय स्तर पर मुस्लिमों में मैरिटल स्टेटस महज 29 फीसदी है।

मुस्लिम समाज की शिक्षा बदहाली के लिए और ढेर सारे कारक जिम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए मदरसा कल्चर बहुत हद तक ज़िम्मेदार जरूर है। रिपोर्ट के मुताबिक ग्रामीण इलाकों में 33 फीसदी बच्चे उर्दू पढ़ते हैं, तो शहरों में करीब आधे (49 प्रतिशत) बच्चों को उर्दू की तालीम दी जाती है। मदरसे में अंग्रेजी पढ़ने वाले छात्रों का प्रतिशत नहीं के बराबर है। 96 फीसदी स्टूडेंट्स जनरल स्टडी करते हैं। महज 4 प्रतिशत ही तकनीकी संस्थानों में जाते हैं। वोकेशनल एजुकेशन का परसेंटेज तो नहीं के बराबर यानी 0.3 फीसदी है। इसके लिए भी मदरसों के सिलैबस को ही कसूरवार ठहराया जा सकता है।
 
रिपोर्ट यह भी कहती है कि सरकारी ही नहीं, निजी संस्थानों में भी मुसलमानों को बहुत कम नौकरियां मिलती हैं। इस तरह उर्दू मीडिया को छोड़ दें तो बाकी मीडिया जैसे बौद्धिक संस्थानों में भी इक्का-दुक्का मुस्लिम पत्रकार मिलते हैं। महमूदुर रहमान समिति का निष्कर्ष है कि महाराष्ट्र में वाकई बहुमत में मुसलमानों की हालत बहुत दयनीय है। यही तर्क देते हुए सच्चर समिति भी मुस्लिम समाज के विकास पर खास ध्यान देने की बात कहती है। संभवतः इसी तरह की फाइंडिंग्स के आधार पर 2007 की जस्टिस रंगनाथ मिश्रा समिति ने मुसलमानों को नौकरी में 10 फीसदी आरक्षण देने की पैरवी की है। मजेदार बात यह है कि हर नेता अपने आपको मुसलमानों का हितैषी बताता ही नहीं मानता भी है, इसके बावजूद मुसलमानों के जीवनस्तर को बेहतर बनाने वाली सभी सिफारिशें फाइल्स के नीचे दबी धूल खा रही हैं।

दरअसल, यह समस्या मुस्लिम समाज की है। लिहाजा, हल करने के लिए उसे ही आगे आना होगा। इस समस्या पर गौर करके मुस्लिम समाज को यह स्वीकार करना ही पड़ेगा कि कोई न कोई वजह तो है जिसके कारण देश में हर क्षेत्र में मुसलमान दूसरे समुदाय से पिछड़ रहे हैं और समस्या के रूप में इसे चिन्हित किए बिना, हल नहीं निकाला जा सकता है। 

बहरहाल, जस्टिस रंगनाथ मिश्रा या डॉ. महमूदुर रहमान की सिफारिशें तो 10 फीसदी आरक्षण देने की बात करती हैं, लेकिन महाराष्ट्र ने कम से कम पांच फीसदी आरक्षण देने की घोषणा तो की है। भविष्य में इसके सकारात्मक नतीजे निकलेंगे और वे मुस्लिम बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा में आ सकेंगे, जो अब तक आरक्षण के अभाव में बाल मजदूर बन जाते थे।


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