फिल्म समीक्षा आर्टिकल 15


भारतीय तकनीक के मामले आधुनिक होकर भले ही इंटरनेट और मोबाइल का जम कर प्रयोग कर रहे हों, लेकिन सोच के मामले में दकियानुसीपन अभी भी जारी है। ज्यादातर लोग वर्ष 2019 में भी किसी अनजान व्यक्ति का नाम इसलिए पूछते हैं ताकि उसकी जाति या धर्म पता चले सके। उसकी जाति या धर्म के आधार पर ही वे उसके बारे में अपनी राय कायम करते हैं।

 

शहरों में भले ही जातिवाद का असर थोड़ा कम नजर आता हो, लेकिन गांवों में जहां कानून की स्थिति कमजोर है, अभी भी दलितों के हाथ का खाना-पीना तो छोड़िए, उनकी परछाई से भी दूर रहा जाता है। मंदिरों में घुसने नहीं दिया जाता और न ही दलित कुओं से पानी ले सकते हैं। कई लोग वोट देते समय भी उम्मीदवार की जाति को देखते हैं। क्या आप ब्राह्मण होने से ही श्रेष्ठ हो जाते हैं? क्या आप दलित होने से घटिया हो जाते हैं? ये ऐसे सवाल है जिनके उत्तर जानते हुए भी हम अनजान बने रहते हैं।

 

इन्हीं प्रश्नों के इर्दगिर्द 'मुल्क' जैसी बेहतरीन फिल्म बनाने वाले निर्देशक अनुभव सिन्हा ने 'आर्टिकल 15' नामक फिल्म बनाई है। भारतीय संविधान के अनुसार सभी को समान माना जाना चाहिए, लेकिन संविधान लागू होने के वर्षों बाद भी परिस्थितियों में ज्यादा अंतर नहीं आया है।

 

उत्तर प्रदेश स्थित लालगांव की कहानी है। अपर पुलिस अधीक्षक अयान रंजन (आयुष्मान खुराना) की यहां पोस्टिंग होती है। सिपाहियों में कोई ब्राह्मण है तो कोई ओबीसी तो कोई दलित। ब्राह्मणों में भी ऊंच-नीच है तो दलितों में भी। इसी जातिवाद के चश्मे से वे थाने में आने वाली शिकायतों को देखते हैं।

 

गांव से तीन दलित लड़कियां गायब हैं। दो लड़कियों की लाश अगले दिन पेड़ से टंगी मिलती है। एक लड़की का पता नहीं चलता। अयान इस मामले की छानबीन शुरू करता है तो उसे समझ में आता है कि दलितों के साथ कितना अन्याय हो रहा है। इन लड़कियों के साथ गैंग रेप हुआ है और उनकी गलती इतनी है कि उन्हें मजदूरी तीन रुपये बढ़ाने की मांग की थी।


 




 

इस कहानी में राजनीति और पुलिस को भी लपेटा गया है। ऊंची जाति और नीची जाति के भेद पर कई राजनीतिक पार्टियां रोटी सेंक रही हैं और चाहती हैं कि ये भेद बना रहे तो दूसरी ओर ब्राह्मण-दलित एक हैं जैसे नारे भी पार्टियां देती हैं। दलित नेताओं को भी नहीं छोड़ा गया है। 'ये दलित नेता सत्ता पाते ही बुत बनवाने लग जाते हैं और विपक्ष में आते ही दलित बन जाते हैं' जैसे संवाद सुनने को मिलते हैं। दलितों को भी संदेश देती है कि यदि वे हिंसा के रास्ते पर चलेंगे तो नुकसान उनका ही होगा।

 

गायब लड़की को तलाशते हुए अयान के जरिये फिल्म आगे बढ़ती है और साथ में जातिवाद के मुद्दे को बेहतर तरीके से उठाती है। कुछ दृश्य सिरहन पैदा करते हैं। गंदगी से भरे चेम्बर में सफाईकर्मी डूबकी लगाता है ताकि शहर स्वच्छ रहे, लेकिन उसको कभी भी इस काम की सराहना तो दूर सुरक्षा के उपकरण भी नहीं मिलते।

 

अयान के अपने साथियों के साथ बातचीत वाले दृश्य भी बेहतरीन बन पड़े हैं। मामला जब बढ़ जाता है तो सीबीआई ऑफिसर आता है और अयान से सवाल-जवाब करता है। फिल्म का यह हिस्सा बहुत अच्‍छे से लिखा गया है और यह बातचीत सुनने और देखने लायक है।