मंदी से अर्थव्यवस्था को निकालने में कामयाब होगी मोदी सरकार


 


बजट पेश करने की तैयारी शुरू हो चुकी है। लोगों को उम्मीद है कि सरकार अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने की कोशिश करेगी। सरकार जहां आयकर में छूट दे सकती है, वहीं अपने खर्च को बढ़ा सकती है। इस बीच तरह-तरह के सवाल भी उठ रहे है। क्योंकि मंदी के कारण जहां आम लोगों की आय घटी है, वहीं सरकार के अपने खर्च पर भी कैंची चलानी पड़ रही है। सलाह दी जा रही है कि सरकार असंगठित क्षेत्र को मजबूत करें जो नोटबंदी के कारण बर्बाद हो गया। चुकिं देश में उपलब्ध कुल रोजगार का 90 प्रतिशत रोजगार असंगठित क्षेत्र ही देता है। वहीं अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए किसानों की सलाना न्यूनतम आय बढ़ाने की सलाह भी सरकार को दी गई है। क्योंकि देश की बड़ी आबादी कृषि क्षेत्र में लगी है। दरअसल कारपोरेट सेक्टर के उत्पादों का बड़ी संख्या में इस्तेमाल इस देश का ग्रामीण और छोटे कस्बाई इलाका करता है। इसमें बहुत बड़ी संख्या किसानों की है। अगर किसान भूखे होंगे तो कंपनियां भी बंद होगी। सरकार को बेरोजगारों के लिए न्यूनतम आय की गारंटी देने की सलाह भी दी जा रही है, ताकि लोगों में बाजार में खर्च करे की क्षमता बढ़े।


मंदी से अर्थव्यवस्था को निकालने में सरकार कितनी समक्ष होगी
अगले बजट में अर्थव्यस्था को मंदी से निकालना सबसे बड़ी चुनौती अब सरकार को है। मंदी का प्रभाव कंपनियों पर ही नहीं दिख रहा है, बल्कि आम जनता पर भी दिख रहा है। क्योंकि पूंजीवादी व्यवस्था में सारा कुछ बाजार में एक दूसरे से जुड़ा हुआ है। लोगों के पास पैसे होंगे तो लोग सामान खरीदेंगे। सामान खरीदेंगे तो कंपनियां उत्पाद बढ़ाएंगी। कंपनियां उत्पादन बढाएंगी तो उनका लाभ बढ़ेगा। इस लाभ का फायदा तीन फ्रंट पर होगा। कंपनियां अपना मुनाफा भी कमांएगी, सरकार को टैक्स रूपी आय भी बढ़ेगी, वहीं बैंकों के एनपीए भी कम होंगे। क्योंकि कंपनियां बैंकों का लोन तभी वसूलेंगी जब उन्हें बाजार में लाभ होगा। लोगों के आय पर ही नहीं रोजगार पर भी पड़ा है। वैसे में अर्थव्यवस्था को मंदी से निकालने के लिए सरकार को खर्च बढ़ाना होगा। लेकिन सरकार खर्च कैसे बढाएगी?  सरकारी की चुनौती एक तरफ राजकोषीय घाटे को नियंत्रित करना है। दूसरी तरफ विकास की योजनाओं को भी चलाना है। लेकिन सरकार को खर्च के पैसे भी जुटाने में दिक्कत हो रहे है। केंद्र सरकार लगातार रिजर्व बैंक और सार्वजनिक क्षेत्र की कंपनियों के लाभांश मांग कर रही है।

तेल कंपनियों से 19 हजार करोड़ रुपये मांगा
दरअसल केंद्र सरकार की आर्थिक हालात इस कदर खराब है कि अब सरकार रिजर्व बैंक से पैसे तो मांग ही रही है, वहीं तेल कंपनियों से भी सरकार अपने खराब होते बजट को देख पैसे मांग रही है। सरकार ने ओएनजीसी, इंडियन ऑयल समेत कई तेल कंपनियों से 19 हजार करोड़ रुपये का लाभांश मांगा है। सरकार ने ओएनजीसी से 6500 करोड़ रुपये लाभांश मांगा है, वहीं  इंडियन ऑयल से 5500 करोड़ और बीपीसीएल से 2500 करोड़ रुपये का लाभांश मांगा है। ये वहीं कंपनियां है जो सार्वजनिक क्षेत्र की है औऱ समय-समय पर सरकार को आर्थिक मुसीबतों से निकालती रही है। जब भी सरकार आर्थिक संकट में आयी है ये कंपनियां सरकार को मदद के लिए आगे आयी है। लेकिन दिलचस्प बात यह है कि सार्वजनिक क्षेत्र की जो कंपनियां सोने की अंडे देने वाली मुर्गी है, उन्हे भी सरकार बेचना चाहती है। सरकार अंधाधुंध निजीकरण कर रही है।


टैक्स कलेक्शन का टारगेट पूरा करने में दिक्कत
सवाल यही है कि सरकार के पास खर्च के लिए पैसा कहां से आएगा? टैक्स कलेक्शन को लेकर सरकार के सामने कई चुनौतियां आ गई है। प्रत्यक्ष कर वसूली को लेकर पिछले वित्त वर्ष के टारगेट पूरा करने में परेशानी है। प्रत्यक्ष कर से सरकार ने 13 लाख करोड़ रुपये की आय की योजना थी। लेकिन अभी तक यह 7.5 लाख करोड़ रुपये पहुंच पाया है। टैक्स अधिकारियों के अनुसार प्रत्यक्ष कर 11 लाख करोड रुपये भी आ जाए तो बड़ी बात होगी। जीएसटी के फ्रंट पर लगातार सरकार को चुनौती मिल रही है। यह भी टारगेट से 1 लाख करोड़ रुपये कम रहने की उम्मीद है। वैसे में सरकार के सामने सबसे बडी चुनौती राजकोषिय घाटे को 3 से 3.5 प्रतिशत रखना है। वैसे में सरकार अगर खर्च बढ़ाएगी तो राजकोषीय घाटा बढ़ेगा। दरअसल मंदी ने आयकर से लेकर जीएसटी तक प्रभावित किया है। व्यापारी टैक्स दफ्तरो में जाकर साफ बोल रहे है कि जो टैक्स विभाग निकाल रहा है, उसे देने के लिए उनके पास पैसे नहीं है। ज्यादा तंग करेंगे तो दुकान बंद कर चले जाएंगे। उनके पास दुकान बंद करने के सिवाए कोई चारा नहीं है।

कारपोरेट टैक्स में छूट दिया, लेकिन अर्थव्यवस्था को लाभ नहीं मिला
सरकार ने अर्थव्यवस्था में तेजी लाने के लिए कारपोरेट टैक्स में छूट दी थी। कारपोरेट टैक्स का बेस 30 प्रतिशत से 22 प्रतिशत लाया गया था। वहीं नई कंपनियों के लिए कारपोरेट टैक्स का बेस 25 से 15 प्रतिशत तक लाया गया। लेकिन इससे कोई तेजी नहीं आयी। कंपनियों को जो पैसे कारपोरेट टैक्स से बचे उसे उन्होंने निवेश करने के बचाए भविष्य के लिए बचत कर लिए। नई कंपनियां आयी नहीं। क्योंकि उन्हें लगता है कि भारत से बेहतर निवेश का स्थान इस समय बांग्लादेश, थाईलैंड, वियतनाम, इंडोनेशिया, मलेशिया जैसे देश है जहां कच्चा माल से लेकर सस्ता श्रम उपलब्ध है। वैसे में बेरोजगारी दर के आंकड़े भी देश में बढ़े है। सरकार बेरोजगारी फ्रंट पर बुरी तरह से फेल होती नजर आ रही है।

आयकर में छूट की संभावना, पर लाभ की गारंटी नहीं
बजट से पहले आयकर में छूट की सलाह दी गई है। सरकार को लगता है कि आयकर में छूट देने के बाद आयकर से बचे हुए पैसे लोग बाजार में खर्च करेंगे। इससे अर्थव्यवस्था चलेगी। लेकिन कई अर्थशास्त्रियों की राय है कि इससे भी लाभ की उम्मीद कम है। लोगों का विश्वास अर्थव्यस्था पर नहीं है। लोग बचत करने के चक्कर में है। क्योकि उन्हें लगता है कि भविष्य के लिए कुछ पैसे बचा कर रखें। क्योंकि भविष्य में रोजगार की स्थिति और खराब हुई तो बचे हुए पैसे काम आएंगे। दरअसल देश में ईमानदारी से टैक्स देने वाले लोग मात्र 4 प्रतिशत है। वैसे में सिर्फ इन चार प्रतिशत लोगों से लिए जाने वाले टैक्स में छूट के बाद अर्थव्यवस्था में तेजी आएगी इसकी उम्मीद काफी कम है। क्योंकि कारपोरेट टैक्स में छूट देकर सरकार ने 1.4 लाख करोड़ रुपये का घाटा सरकारी खजाने को दिया, लेकिन इसका लाभ अर्थव्यवस्था को कुछ नहीं मिला।

आंकड़ों की हेरफेर से बचे सरकार
सरकार पर लगातार आंकडों के हेरफेर के आरोप लग रहे है। आर्थिक आंकड़ों के हेरफेर चुनावी फायदा दे सकता है, लेकिन लंबे समय में देश को नुकसा देगा। पूर्व वित्त सचिव का दावा है कि सरकार आर्थिक आंकड़ों में सारा कुछ सच नहीं दिखा रही है। सरकार ऑफ बजट खर्च से वित्तीय घाटा को प्रबंधित कर रही ताकि जनता को सबकुछ ठीक नजर आए। खुद पूर्व वित्त सचिव का दावा है कि वित्त वर्ष 18 में वित्तीय घाटा वास्तव में 4.39 प्रतिशत था। पर सरकार ने इसे मात्र 3.5 प्रतिशत दिखाया था। वित्त वर्ष 2019 में वास्तविक वित्तीय घाटा 4.66 प्रतिशत था जबकि इसे दिखाया 3.5  प्रतिशत गया था। वित्त वर्ष 2020 में वित्तीय घाटा 4.5 से 5 प्रतिशत तक रहने की उम्मीद है। जबकि सरकार का दावा है कि यह 3.3 प्रतिशत तक रहेगा। सरकार कई योजनाओं पर खर्च के लिए ऑफ बजट खर्च का इंतजाम कर रही है। ऑफ बजट खर्च का मतलब होता है कि बजट के बहीखाते से अलग योजनाओं पर खर्च करना। दरअसल सरकार ने ऑफ बजट खर्च से बैंकों का पुन:पूंजीकरण, खाधय़ सब्सिडी और सिंचाई से संबंधित योजनाओं पर पैसे लगाए है। वैसे में यह साफ तौर पर कहा जा सकता है कि सरकार के खुद के आर्थिक हालात बहुत अच्छे नहीं है।

बैकों का एनपीए सबसे ब़ड़ी चुनौती
सरकार के सामने बैंकों का एनपीए सबसे बड़ी चुनौती है। एनपीए कम होने के बजाए लगातार बढ़ रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र के बैकों की हालात खराब है। अर्थशास्त्रियो का दावा है कि बैंकों को चार मोर्चे पर चुनौती मिल रही है। टेलीकॉम सेक्टर और एनर्जी सेक्टर के एनपीए ने बैंकों को पहले ही बदहाल कर दिया था। अब नई चुनौती बैकों के सामने रीएल एस्टेट सेक्टर और नॉन बैंकिंग फाइनांसिएल सेक्टर है। इन दो सेक्टरों को दिए गए कर्ज बैंकों को शायद ही आए। वैसे में बैकों की हालत कैसे सुधरेगी यह समझ में अर्थशास्त्रियों को नहीं आ रहा। बैंक तो बैंक भारतीय जीवन बीमा निगम का एनपीए भी 6 प्रतिशत पहुंच गया है। बताया जाता है कि एलआईसी की स्वायतता पर प्रहार कर सरकार ने एलआईसी के पैसे कई जगहों पर लगवा दिए है। ये पैसे डूब सकते है। वैसे में आम जन का विश्वास एलआईसी से उठ सकता है। इसका सीधा नुकसान एलआईसी को होगा।