समाजसेवी जगदीश लाल आहूजा को जो पैसा कमाया गरीबों को खिलाने में लगाया, मिला पद्मश्री


83 साल के समाजसेवी जगदीश लाल आहूजा को पद्मश्री सम्मान के लिए चुने जाने के बाद उनके परिवार में खुशी का माहौल है. जगदीश सम्मान मिलने के बाद बेहद खुश हैं, लेकिन अपने संघर्ष भरे दिनों को याद करते हुए उनकी आंखों से बरबस आंसू बहने लगते हैं और बात करते-करते गला रुंध जाता है.


उनका कहना है, 'मुझे इससे बढ़कर क्या मिल सकता है. एक रेहड़ी-छाबड़ी लगाने वाले इंसान को इतना बड़ा सम्मान मिलना बड़ी बात है. मैंने जैसे ही सुना मेरा सिर चकरा गया. मैं कभी ठेला लगाता था और आज मुझे पद्मश्री अवॉर्ड मिला है. मेरी कितनी बड़ी खुशकिस्मती है.'


'सम्मान...पहले तो यकीन नहीं हुआ'


जगदीश ने कहा, 'मुझे जब इस सम्मान से नवाजे जाने के लिए फोन आया तो मेरे पैर से जमीन जैसे खिसकने लगी, यकीन ही नहीं हुआ. पहले तो मैंने फोन उठाया ही नहीं, लेटा रहा. एक घंटे बाद देखा और मैंने वापस फोन मिलाया, तो पता चला मुझे पद्मश्री मिल रहा है. फोन 25 तारीख को आया था और 26 को आने को कह रहे थे, लेकिन मेरी तबीयत ठीक नहीं, तो मैंने कह दिया मैं बीमार हूं, बाद में ही आऊंगा.'


बीते दिनों की याद ताजा करते हुए जगदीश कहते हैं, 'हिंदुस्तान-पाकिस्तान बंटवारे के बाद उनकी जिंदगी तकलीफ भरी रही है, लेकिन जब भी वह भूखे लोगों को खाना और बच्चों को मिठाई बांटते थे तो बहुत सुकून मिलता था. मेरी जिंदगी में तकलीफ तब से है जब से मैं पैदा हुआ हूं. मैंने जिंदगी में सुख नहीं देखा. जब भंडारा करता था, तो मन को शांति मिलती थी, सुकून मिलता था, चैन मिलता था. मैं कॉलोनियों (बस्तियों) में जाता था. बच्चों की लाइन लग जाती थी जब भी उनको केले, बिस्कुट टॉफी आदि बांटता था. हफ्ते में 6 दिन समाजसेवा करता था और एक दिन छुट्टी.' इस बीच जगदीश पुरानी यादें ताजा करते हुए बस्तियों के नाम गिनाने लगते हैं.



'परिवार पालने के लिए सड़क पर सामान बेचा'


जगदीश आहूजा जब 1947 में भारत आए तो उनकी उम्र महज 12 साल थी. उनको सबसे पहले पटियाला और फिर अमृतसर और बाद में मानसा शिविर में भेजा गया. उनके पिता पढ़े-लिखे थे. उन्होंने परिवार पालने के लिए सड़क पर सामान बेचा. जगदीश पढ़े-लिखे नहीं हैं. वह दूसरी कक्षा में फेल हो गए थे और फिर भारत आकर सड़कों पर घूम-घूम कर मूंगफली, रेवड़ी वगैरह बेचते थे, लेकिन उससे काम चला नहीं.


वो कहते हैं ,'मैं एक रुपये में 2 किलो 200 ग्राम दाल खरीदकर लाया, फिर उस की 34 पुड़िया बनाईं. ये सब रेलवे स्टेशन पर बेचता था. मेरे पैरों में चप्पल नहीं होती थी. पत्थर पैरों में चुभते थे. उस वक्त मेरी उम्र सिर्फ साढ़े 12 साल थी. मानसा से हम वापस पटियाला आ गए. वहां पर मैं गली-मोहल्लों में छोटा-मोटा सामान बेचता था. शाम को 6 बजे घर लौट आता था. एक-दो रुपये जो भी कमाता अपने घर में देता था. जब पटियाला से चंडीगढ़ आया तो मेरी जेब में 415 रुपये थे, लेकिन भगवान ने ऐसी रहमत की कि मेरा काम चल निकला.'


पति पर पहले से ही गर्व था


जगदीश आहूजा की पत्नी निर्मल आहूजा भी उनको पद्मश्री सम्मान मिलने से बेहद खुश हैं. वो कहती हैं कि पति पर पहले से ही गर्व था, अब सरकार ने जिस सम्मान से नवाजा है, उससे उनकी मेहनत सफल हुई है.' निर्मल आहूजा कहती हैं, 'मुझे बहुत खुशी हुई. ज्यादा खुशी तो मुझे पहले भी थी जब उन्होंने लंगर शुरू किया था. मुझे इन पर बहुत फक्र है. पहले मैं लंगर में नहीं जाती थी, लेकिन पिछले 8-9 सालों से इनके साथ जाने लगी हूं.'


जगदीश लाल आहूजा अपनी सादगी के लिए जाने जाते हैं. अपनी कमाई का ज्यादातर हिस्सा लोगों को खिलाने पर लगा चुके हैं. वह किसी से कोई मदद नहीं लेते, लेकिन चाहते हैं कि सरकार उनको आयकर में छूट दे, ताकि वह ज्यादा लोगों को खाना खिला सकें.


जगदीश लाल आहूजा कहते हैं, 'मैं मुफलिसी में रहता हूं. जो कंबल मैंने ओढ़ रखा है यही मैंने लाखों लोगों को बांटे हैं. मैं जो भी लंगर परोसता हूं, वह मैं और मेरी पत्नी भी वहीं पत्ते पर बैठकर खाते हैं. अगर मुझे आयकर में छूट दे दी जाए तो मेरे बच्चे भी यह लंगर जारी रखेंगे. मेरी संपत्ति से जो भी आमदनी होगी उससे वह भंडारा चलता रहेगा.'