शाहीन बाग के आंदोलनकारियों की नई रणनीति, क्या खत्म हो जाएगा धरना


पिछले 15 दिसंबर से चल रहे दिल्ली के शाहीन बाग के धरने को खत्म करने का क्या सही वक्त आ गया है? ये कहा जा रहा था कि भाजपा जानबूझ कर दिल्ली चुनाव में वोटों के ध्रुवीकरण के लिए धरना खत्म नहीं कराना चाहती। अरविन्द केजरीवाल भी बार-बार कह रहे थे कि अमित शाह की पुलिस के लिए धरना खत्म कराना 10 मिनट का काम है, लेकिन वो चुनावी फायदे के लिए उसे लंबा खींच रहे हैं।


चुनाव खत्म होते ही धरना खत्म हो जाएगा। अब चुनाव नतीजों से साफ है कि पिछली बार तीन सीटों वाली भाजपा को इससे जितना फायदा मिलना था मिल चुका और हिन्दू वोटों के ध्रुवीकरण की उसकी कोशिश कुछ हद तक तो कामयाब जरूर हुई। लेकिन जो लोग ये मानकर बैठे थे कि शाहीन बाग के मुद्दे से भाजपा दिल्ली पर कब्जा कर लेगी, उन्हें समझ में आ जाना चाहिए कि आम आदमी नफरत की राजनीति को पसंद नहीं करता।

खासकर दिल्ली का ये नतीजा सीएए और एनआरसी जैसे मुद्दों को लेकर भी भाजपा के लिए एक सबक जैसा है। नौ दिसंबर को नागरिकता संशोधन बिल को संसद में पेश करने और इसे अफरातफरी में पास करवाकर कानून बना देने और 10 जनवरी 2020 से इसे लागू करने की अधिसूचना जारी करने के बाद यह पहला विधानसभा चुनाव था। इससे पहले पिछले साल हरियाणा, महाराष्ट्र और झारखंड के चुनाव में भाजपा ने लोगों के भीतर के आक्रोश को नतीजे की शक्ल में देख लिया था, लेकिन केन्द्र में दोबारा जबरदस्त रूप से अप्रत्याशित जीत दर्ज कर सत्ता में लौटने के बाद मोदी सरकार अति आत्मविश्वास से लबरेज नजर आती रही।

अमित शाह पूरे फॉर्म में नजर आते रहे। सत्ता में दोबारा आते ही और गृहमंत्री की बागडोर संभालते ही अमित शाह ने कश्मीर से धारा 370 हटाने से लेकर सीएए लागू करने तक जितने दनादन फैसले लिए और सीधे तौर पर हिन्दू-मुसलमान के बीच विभाजन की जो लकीर खींची, दिल्ली चुनाव के नतीजों ने उसे खारिज कर दिया।

सीएए और एनआरसी को लेकर शुरू हुआ संग्राम और शाहीन बाग से शुरू होकर देश के तमाम हिस्सों में फैला आक्रोश सीधे तौर पर इस राजनीति को खारिज करने वाला था। जिस दिल्ली को फतह करने का सपना भाजपा अपने इन तमाम फैसलों और नफरत भरे भाषणों की बदौलत देख रही थी, वह बुरी तरह टूट गया। शाहीन बाग के धरने को लंबा खींचकर वह जितना फायदा उठाना चाह रही थी, उतना नहीं उठा पाई।

दरअसल दिल्ली में आप के समर्थन में जिस तरह की हवा पहले से ही दिख रही थी और केजरीवाल का काम बोल रहा था, उसे भाजपा के भीतरी कतारों में भी महसूस किया जा रहा था, लेकिन अमित शाह के राज में किसी के पास खुलकर बोलने की हिम्मत नहीं। हमने कई भाजपा के कार्यकर्ताओं और नेताओं से इस दौरान बात की थी, ज्यादातर ने दबी जुबान से पहले ही मान लिया था कि दिल्ली दोबारा आप के ही पास जा रही है, उनमें से कई ने अपना दर्द यह कहकर भी साझा किया कि हमारी मजबूरी है कि हम खुलकर बोल नहीं सकते।

आप ताज्जुब करेंगे कि सीएए और एनआरसी जैसे सवालों पर भाजपा की निचली कतारों में भी असंतोष नजर आता रहा और जेएनयू या जामिया में जो कुछ हुआ उसे भी वह गलत ठहराते रहे। शाहीन बाग के धरने को लेकर भी उनका यही कहना था कि इससे शायद पार्टी को कुछ फायदा हो जाए। वो लगातार यही कहते रहे कि चुनाव के बाद यह धरना खत्म हो जाएगा। यहां तक खबर मिली कि पुलिस को इसके लिए निर्देश मिले थे कि शाहीन बाग में धरने पर बैठी महिलाओं को मदद की जाए और धरना चलता रहे, इसका खास ध्यान रखा जाए।

भाजपा के चुनावी चाणक्य माने जाने वाले गृह मंत्री अमित शाह की रणनीति इससे ज्यादा कामयाब हो सकती थी, अगर अनुराग ठाकुर या प्रवेश वर्मा जैसे उनके अति उत्साही नेतागण खुलकर ऐसे सांप्रदायिक बयान न देते और खुद अमित शाह अपने भाषणों में नफ़रत और बौखलाहट भरे अंदाज में यह न कहते कि इतनी जोर से कमल का बटन दबाओ कि करंट शाहीन बाग को लगे। यानि जिस शाहीन बाग को भाजपा ने ब्रांड बनाया, उसी ब्रांड का उल्टा करेंट उसे लग गया। बावजूद इसके भाजपा को इस बात से खुश हो जाना चाहिए कि उसने तीन से डबल डिजिट तक पहुंच कर कुछ तो लाभ कमाया ही।

तो क्या अब शाहीन बाग का धरना खत्म हो जाएगा... क्या अब सीएए और एनआरसी के खिलाफ शाहीन बाग से उठी आवाज दब जाएगी या इसे एक नई ऊर्जा मिलेगी... क्या ऐसे समय में धरने को खत्म करवा कर भाजपा ये संदेश साफ साफ दे देगी कि वह तो महज चुनावी फायदे के लिए इसे लंबा खींच रही थी, या फिर अभी कुछ दिन तक शाहीन बाग की तरफ कोई ध्यान नहीं देकर उसे और नजरअंदाज किया जाएगा... जाहिर है दिल्ली के चुनाव, केजरीवाल के जीत-हार या भाजपा को हुए चंद सीटों के इजाफे से शाहीन बाग के मुद्दे का कोई लेना देना नहीं, उनके सवाल अलहदा हैं, नागरिकता कानून को लेकर उनका आक्रोश अलग है और उनकी जंग की दिशा भी अलग है... बेशक दिल्ली के नतीजे उनकी लड़ाई और मनोबल को और मजबूत करने वाले हैं और हो सकता है कि अब शाहीन बाग किसी नई रणनीति के साथ इसके राष्ट्रीय स्वरूप का ताना बाना बुनना शुरू कर दे, जिसके संकेत पहले से ही नजर आने लगे हैं।